साधो सहज समाधी भली गुरु प्रताप जा दिन से जागी
दिन दिन ओर चली
जहाँ जहाँ डोलूं सो परिक्रमा जो जो करूँ सो सेवा
जो सौओं तो करूँ दंडवत, पूजूं ओर ना देवा
जो सुनू सो सुमिरन जो जो कहूँ सो नामा
खाऊँ पिउन सो पूजा
गृह उजार इक सम लेखुं भाव ना राखूं दूजा
आँख ना मूंदुं कान ना रुंधुं
तनिक कष्ट नहीं धारु
खुले नैन पहिचाणु
हंस हंस सुन्दर रूप तिहारो
शब्द निरंतर सो मन लागा
मलिन वासना त्यागी
उठत बैठत कबहूँ न बिसरे
ऐसी तारी लागी
साधो सहज समाधी भली