आह आजकल देश में विभिन्न प्रकार के योग से जुड़े हुए देश एवं विदेश में बसे भारतीयों के द्वारा न जाने कितने संस्थान प्रारंभ किये हैं जिनमे योग कक्षाएं चलाई जाती हैं तथा लोगो को आसन सिखाना तथा अनेक शारीरिक व्यायामों को योग कक्षा के नाम पर धन प्राप्त किया जाता है. क्या योग केवल आसन एवं प्राणायाम तक ही सीमित होकर रह गया है? योगेश्वर व योगीश्वर की इस धरा पर हम अपूर्ण ज्ञान का प्रसार कर केवल अपना नाम और धन बटोरने को ही योग कहेंगे.
अमेरिका के लोग इसी पर अपनी पुस्तकें प्रकाशित कर धन अर्जित कर रहे हैं. हमारे मनीषियों ने जिज्ञासुओं को किसी अपेक्षा के बिना ही अपना सर्वस्व प्रदान किया और इसे उन्होंने अपने गुरु ऋण से स्वयं को मुक्त करने का उपाय माना.
योग के गंभीर अंश तो आन्तरिक साधना का विषय हैं जिसमे आसन एवं प्राणायाम तो बाह्य उपक्रम मात्र है. योग किसी एक विधा का नाम नहीं है वरन यह जीवन को पूर्ण रूप से जीने की कला का नाम हैं.
यम और नियम व्यक्तिगत एवं सामाजिक आचार व्यवहार सिखाते है तो शरीर पक्ष आसनों व प्राणायाम से सुदृढ़ किया जाता हैं, प्रत्त्याहर से मानसिक विकारों को दूर करने का उपक्रम व धारणा से शुभ भाव व विचारों को धारण किया जाता हैं. ध्यान आतंरिक जगत् में प्रवेश में प्रथम पग है जिसमे अपने इष्ट को लक्ष्य कर एक चित हो समाधी की दिशा में जाना होता है. प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान स्वयं के द्वारा किये जाने हैं गुरु इसमें पूर्व निर्देश देते हैं. योग सामूहिक ड्रिल या म्यूजिक की धुन पर पैर थिरकाने की चीज नहीं है. सामूहिक सम्मलेन में आसन मुद्रा बंध एवं प्राणायाम तो किये जा सकते हैं पर इसके उपरान्त आगे की विधियों के लिए व्यक्तिशः व्यक्तिगत रूप से निर्देश की आवश्यकता होती है. गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में प्रवेश कराकर यह कार्य सहज कर देते हैं. इसमें वे शिष्य से प्रवेश शुल्क नहीं मांगते; दिया भी नहीं जा सकता. अपनी तपस्या का फल एक क्षण मात्र में दे देते है; कितने वर्षों तक किस किस यंत्रणा को भोग कर जो उन्होंने सीखा हुआ होता है शिष्य उसे किस मूल्य पर क्रय कर सकेगा?
हजारों वेब साईट व योग संस्थानों में धन की मांग प्रथम कार्य होता है; जिज्ञासु को वहां क्या मिलेगा या जो वह चाहता है अंततः उसे कभी मिलेगा भी या नहीं इसकी उसे कोई जानकारी नहीं होती. योग से आकर्षित बहु जनों को तो योग के माध्यम से वे क्या पाना चाहते हैं यह भी ज्ञात नहीं होता इसीलिये आसनों और प्राणायाम की कक्षाओं में धन अप व्यय कर किंचित लाभ प्राप्त करने को ही योग समझ लेते हैं. आधुनिक जिम्नेसियम के सामान योग कक्षाएं मासिक या पाक्षिक शुल्क निर्धारित कर चलाई जाती है. पुस्तकों में भी आसनों की जानकारी एवं योग का स्वरुप का वर्णन किया जाता है पर क्या इससे योग की अनंत धारा प्रवेश हो पाता है?
योग के आधुनिकी करण पर चिंतनीय अनेक अनुत्तरित प्रश्न है. किन्तु जो जान बूझ कर बिना समझे निकल पड़ते हैं वही अपना समय व धन नष्ट करने के साथ जीवन के उतने बहुमूल्य पल भी वास्तविक मार्ग पाए बिना गवां देतें हैं.
योग को समझाने वाली अनेक प्राचीन पुस्तकों को अध्ययन कर अपना लक्ष्य का निर्धारण कर फिर किसी योग्य एवं समर्थ गुरु के निर्देश में सभी अंगों का अभ्यास प्रारंभ किया जा सकता है.